आदमी डर रहा आदमी से यहाँ,
क्यों हमने बनाया ऐसा अपना जहाँ,
मह्कानी थी जहाँ प्यार खुशबू,
बहानी थी जहाँ अमन की हवा,
फैलाया वहां नफरतों का धुआं,
चमन में बहार थी कितनी,
फिजा में प्यार था कितना,
उसको हटाकर हमने,
बहाई दुश्मनी की हवा,
जिसके थपेडों से बचना है मुश्किल यहाँ,
बागों में फूल थे कितने ,
कितनी कलियाँ महका करती थी,
हमको वो भी अच्छी नहीं लगी ,
उजाड़कर उनको सिर्फ काटें लगे हमने,
जो उधेड़ रहे आदमी की खाल को यहाँ,
क्यों आदमी भूल गया अपनी पहचान को,
इस दुनिया के सबसे सभ्य जीव के नाम को ,
क्यों बन गया वो जानवरों से भी बदतर,
जो नहीं डरता कम से कम अपने साथियों को,
पर आदमी डरा रहा आदमी को यहाँ,
किसी को मजहबी दुश्मनी ने कराया ये,
किसी ने नाम कमाने को कर डाला,
कोई पैसे का ढेर लगाकर खुश हो जाता है,
कोई अपनी नाक बचाता है और कुछ भी वो कर जाता है,
खुद के डर से लड़ने को वो दूसरों को डराता है......................
2 comments:
बहुत अच्छा लीखें हैं। आपकी कवीता मे बहुत ज्यादा सच्चाई है।
काश हम अच्छा बना सक्ते ईस जहां को।
बहुत सुंदर और हैं बिल्कुल सच्चे
भाव ऐसे हैं जैसे कह रहे हों बच्चे
गीत इंसानियत के नहीं हैं सुनाते
उसको तुझको मुझको सबको डराते
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