रास्ते कितने चला मैं मंजिल को पाने को,
मैं यूँही चलता रहा और दूरियां बढती रही,
कुछ दूर चलकर आएगी मंजिल मेरी,
ख़त्म होगा ये सफर और ये मारा-मारी,
बस इसी आशा को लेकर बढता रहा,
पर मैं यूँही बढता रहा और दूरियां बढती रही,
सफर में मिले मुझे हमसफ़र और भी बहुत,
कुछ ने बदले रास्ते और कुछ की थी मंजिल अलग,
जो मिला मुझसे मैं उससे मुस्कराकर मिला,
कुछ मेरे साथी बने और कुछ बिछड़ते चले गए,
एक दिन थक जाऊँगा मैं इस सफर में,
ख़त्म होगा ये सफर और ये मारा-मारी,
दोस्तों वो दिन होगा मेरी जिंदगी का आखरी,
पर मंजिल की दूरियां तब भी कायम रहेंगी,
क्योंकि मैं चलता रहूँगा और दूरियां बढती रहेंगी...............
SACHIN JAIN
6 comments:
पर मैं युहीं चलता रहा और दूरियां बढती रही,
ये पंक्ति बहुत बढ़िया रही..
बहुत ही बढ़िया रचना...
सचिन जी
बहुत अच्छी कविता लगी आप की...सच कहा है कुछ दूरियां कभी नहीं मिटतीं.....
नीरज
मैं यूँही चलता रहा और दूरियां बढती रही,
सचिन बहुत खूब लिखा है आपने
बढ़िया रचना!!
Do not know whether u people get what i want to say in this,
basically this I wrote when a thought come to my mind, when a person is in High school,than everybody says to him this is the tough thing only after that life will be easy, same things happen in 12th and continue till his life ends :)
thanks for all ur comments, these comments gives the inspiration to write more
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